Wednesday, November 18, 2009

बाअदब लखनऊ बेअदब लखनऊ ...एक सफर


मुझसे सुबह-- शाम शिकवा कर रहा है लखनऊ
देख तुझमे धीरे धीरे मर रहा है लखनऊ


आली वासी साहब की ये लाइने दर्द बयान करती है उन दिलो का जो बाअदब लखनऊ से बेअदब लखनऊ की चश्मदीद रहीहै। हमारा lucknow जाने हममे मर गया खो गया या सो गया पर हा वो हमसे जुदा ज़रूर हो गया। दुआ तो यहीं है काश वो सोया हो ताकि दोबारा किसी आहट से जाग जाए और हम उस फिजा मै फ़िर से साँस ले सके जहाँ 'पहले आप वाला' लबोलहजा था खफा होने और गाली देने का अंदाज़ भी आप से शुरू होकर आप पर ही ख़त्म होता था, मोहल्ले के किसी एक घर की तकलीफ पुरे मोहल्ले के लिया परेशानी का सबब होती थी, मदद का जज्बा यूँ था की पता पूछने भर से शख्स आपको आपके मकाम तक छोड़ने चल पड़ेगा , मामूली फेरी वाले भी अपना सामान यूँ खास नाज़--अंदाज़ मै बेचते थे 'लैला की उंगलियाँ है मजनू की पसलियाँ है जनाब ज़रा गौर करे क्या खूब कक्दीयाँ है' इसी लखनऊ पर फ़िदा हो शेख इमाम साहेब ने लखनऊ के नाम ये शेर नजर किया

गुल से रंगीतर है खारे लखनऊ , नशे से भी बेहतर है खुमारे लखनऊ
फ़िर रहे है गुल हजारे लखनऊ , है चमन हर जो गुज़ारे लखनऊ


वक्त बदला दौर बदला और साथ ही बदला लखनऊ, बदलाव तो कुदरत की फितरत है पर जिस बदशक्ल सूरत में लखनऊ हमारे सामने है वो बदलाव ख़ुद लखनऊ के मुस्तकबिल के लिए बेहतर नही है , ये वो ही लखनऊ है जो बटवारे के दंगो के बीच भी अपने नवाबो की सांझी विरासत को नहीं भुला था , पर जब इसी लखनऊ में इस्लाम के दो जानशीन इस्लाम का ही खून बहा रहे थे तो कैफ़ी साहेब की कलम कुछ यूँ चली -

अजाँ में बहते थे आंसू यहाँ लहू तो नहीं ये कोई और जगह होगी ये लखनऊ तो नहीं
यहाँ तो चलती है छुरियाँ ज़बान से पहले यहाँ मीर अनीस आरजू की गुफ्तगू तो नहीं


इस दौरान लगातार हमारी तहजीब का दामन हमारे हाथो से सरकता रहा हमारी आपसी गुफ्तगू तहजीब के दायरे से बाहरनिकल आई, sashduta हमारे बीच घटी , हम ज्यादा से ज्यादा ख़ुद को 'मै' के दायरे में समटते चले गए , इंसानियत का दर्ज़ा हमारी निगाहों में ख़त्म हो गया अमीनाबाद और हजरतगंज में भीड़ बढ़ी पर वो खुलूस और रौनक ख़त्म हो गई जिसकी तलाश में लखनऊ वहां सिमट आता था , तांगे और बग्घियाँ टेम्पो और बस के काले धुंए में खो गए , तमाम शोरो गुल और चकाचौध के बीच भी आज दिवाली में अब वो नूर नही है और ईद की मिठास में एक अजीब सी कडवाहट घुल गई है जिस शामे अवध की धूम दुनिया भर में थी वो अवध की मरी हुई तहजीब पर मातम करती हुई मातम-- अवध में तब्दील हो गई

सबसे ज्यादा अफसोसनाक तो ये है की इसके बाद भी लखनऊ संजीदा नहीं हुआ हमारे मौजूदा हुक्मरानों ने भी लखनऊ को बचाने में कोई खास दिलचस्पी नईं दिखाई वरना क्या आज जिस लखनऊ के नुक्कड़ो गलीयो में आए दिन बड़ी बड़ी राजनैतिक रैलियाँ निकलती रहती है उसके पास इतनी जगह मयस्सर नही है की वो अपना जश्ने लखनऊ ख़ुद लखनऊ के अन्दर समेट सके, इस जश्न में लखनऊ की तहजीब है ही हमारे फनकार और लखनऊ का अहसास ,नवाबो के बेजान पुतले और इमारतो के ढाँचे खड़े कर देने भर से हम इसे जश्ने लखनऊ मान बैठेगे। जिस गोमती के किनारे ये पुरा शहर तामीर हुआ आज वही गोमती का किनारा लखनऊ के जश्न के लिए छोटा पड़ गया गोमती भीशायद इस बदलते लखनऊ को देख में उस लखनऊ को तलाश कर है जो कभी उसके किनारे आबाद हुआ करता था।

अरसे पहले मिस एडेन गार्डेन ने छतर मंजिल और उसकी आस पास की इमारतो को देखकर कहा था '' इसे देखकर जुबैदा बेगम के फरहद बाघ की याद आती है लगता है अलिफ़ लैला में बयान बागे इरम ज़रूर इसी तरह का रहा होगा। '' पर आज हमारी धरोहरे जिस तरह ख़ुद को खड़ा किए हुए है उससे ये नहीं लगता की बहुत दिनों तक लखनऊ का वकार इस पर कायम रह पायेगा .

इस तरह से धीरे धीरे लखनऊ ख़ुद दूर होता जा रहा है लखनऊ से जब हमारे जश्न हमारी तहजीब , हमारे फनकार हमारी धरोहरे दूर हो जायेगी हमसे तो हम कैसे बचा पायेगे अपने इस महबूब शहर को इस मौके पर उमर अंसारी साहेब की ये लाईनेएकदम वाजिब दिखाई पड़ती है ;

माना बहुत हसीं है माना बहत जवां है
यादो की सरज़मीन है ख्वाबो का आसमा है
बस्ती है नवाबो की शहरे सुखन वरां है
सब कुछ है फ़िर भी जैसे हर शय धुंआ धुंआ है
मै जिसको ढूढता हूँ वो लखनऊ कहाँ है
इक्के है अब तांगे डोली बग्घियाँ है
थे पहले आप वाले सब लोग अब कहाँ है
जिनको देखने को आँखे तरस रही है
मै जिसको ढूढता हूँ वो लखनऊ कहाँ है

1 comment:

  1. ye feature har us shaksh ke liye jo apne us baadab luknow ko talaash raha hai jo pata nai kahan kho gaya ....ise pdhkar aap zaroor koshish kareapne andar us lucknow ko fir se jeene ki jo shayad mar gaya hai

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