Friday, December 25, 2009

ये ग़म ही तो हैं जो हमेशा वफादार रहे हैं


अब हर शख्स में उसको ही तलाश रहे हैं
जिसके साथ भी कभी हम उदास रहे हैं
ख़ुशी का लम्हा हो या हो ग़म का मौसम
हमारे हर जज़्बात में उसके ही एहसास रहे हैं
ग़मों से ज्यादा शिकायत नहीं रही हमको
ये ग़म ही तो हैं जो हमेशा वफादार रहे हैं
उसने मुडके न देखे कभी पैरो के निशां भी
तो कैसे कह दे की वो हमारे कभी यार रहे हैं
उलझनों से अब दिल को लगावट सी हो गई
वो और होंगे जो खुशियों के तलबगार रहे हैं



Tuesday, December 15, 2009

इम्तहानो के दिन


अरे जयादा गंभीर न हो हम ज़िन्दगी के इम्तहान की बात नहीं कर रहे है हम बात कर रहे है बस कॉलेज के इम्तहान की .वैसे तो इस वक़्त हमे पढना चाहिए क्युकी इम्तहान हमारे चल रहे है पर जब किताबे दिल मै बेचिनी ला दे वही किताबी बाते मन और दिमाग को परेशां कर दे तो बस लगता है बहुत हो गया बस अब पेपर हाथ मै आ जाये और हम उसे करके ख़त्म करें पर काश यही नजरिया ज़िन्दगी के इम्तहानों के लिए भी पैदा हो जाये की बस अब जो भी होना है वो हो जाये और हम उससे बहार निकल आये पर हम क्यों ज़िन्दगी मै इम्तहानों को टालते रहते है ..उनका सामना करने से घबराते है , जबकि पता है अगर आज हम इसे दूर भागयेगे तो कल ये ज़रूर हमारे सामने आएगा पर फिर भी जितना हो सके हम उससे बस बचना चाहते है। ज़िन्दगी हर कदम पर हमे गिरना , खड़े होना , चलना, झूझना सिखाती है फिर इसी ज़िन्दगी से क्यों इतनी शिकायते है हमें ? हम क्यों नहीं मुश्किलों को बस इसी तरह से लेते की ये भी एक समय के लिए है बस पूरी हिम्मत से हम इनका सामना कर तो बाद मै मिलने वाला परिणाम ज़रूर अच्छा होगा। हमेशा सब कुछ अपने आप ही अच्छा होने की चाह ही हमे इन इम्तहानों से डरा देती है ।
बरहाल हमारे पेपर तो बहुत जल्दी ही ख़त्म हो जायेगें और अगर हम यू ही ब्लॉग लिखते रहे तो फिर बाद मै ' रिजल्ट क्यों ख़राब आता है ' इस पर भी एक ब्लॉग लिखते नज़र आयेगे तो हम जा रहे है अपने इम्तहानो के बेहतर रिजल्ट के लिए तयारी करने और हां अगर आपकी ज़िन्दगी मै भी कोई इम्तहान चल रहा है तो बस अपनी पूरी हिम्मत से इसका सामना करिए इसे टालिए नहीं बल्कि जल्दी से जल्दी इसे ख़तम कर दीजिये यकीन मानिए ये बस एक निचित समय के लिए है और अगर आपकी तयारी ज़ोरदार होगी तो रिजल्ट ज़रूर आपके हक मै होगा।

आशा है आप सभी की शुभकामनाये हमारे साथ है और ज़िन्दगी के हर इम्तहान के लिए आप सभी को हमारी ढेरो शुभकामनाये ।

Wednesday, November 18, 2009

बाअदब लखनऊ बेअदब लखनऊ ...एक सफर


मुझसे सुबह-- शाम शिकवा कर रहा है लखनऊ
देख तुझमे धीरे धीरे मर रहा है लखनऊ


आली वासी साहब की ये लाइने दर्द बयान करती है उन दिलो का जो बाअदब लखनऊ से बेअदब लखनऊ की चश्मदीद रहीहै। हमारा lucknow जाने हममे मर गया खो गया या सो गया पर हा वो हमसे जुदा ज़रूर हो गया। दुआ तो यहीं है काश वो सोया हो ताकि दोबारा किसी आहट से जाग जाए और हम उस फिजा मै फ़िर से साँस ले सके जहाँ 'पहले आप वाला' लबोलहजा था खफा होने और गाली देने का अंदाज़ भी आप से शुरू होकर आप पर ही ख़त्म होता था, मोहल्ले के किसी एक घर की तकलीफ पुरे मोहल्ले के लिया परेशानी का सबब होती थी, मदद का जज्बा यूँ था की पता पूछने भर से शख्स आपको आपके मकाम तक छोड़ने चल पड़ेगा , मामूली फेरी वाले भी अपना सामान यूँ खास नाज़--अंदाज़ मै बेचते थे 'लैला की उंगलियाँ है मजनू की पसलियाँ है जनाब ज़रा गौर करे क्या खूब कक्दीयाँ है' इसी लखनऊ पर फ़िदा हो शेख इमाम साहेब ने लखनऊ के नाम ये शेर नजर किया

गुल से रंगीतर है खारे लखनऊ , नशे से भी बेहतर है खुमारे लखनऊ
फ़िर रहे है गुल हजारे लखनऊ , है चमन हर जो गुज़ारे लखनऊ


वक्त बदला दौर बदला और साथ ही बदला लखनऊ, बदलाव तो कुदरत की फितरत है पर जिस बदशक्ल सूरत में लखनऊ हमारे सामने है वो बदलाव ख़ुद लखनऊ के मुस्तकबिल के लिए बेहतर नही है , ये वो ही लखनऊ है जो बटवारे के दंगो के बीच भी अपने नवाबो की सांझी विरासत को नहीं भुला था , पर जब इसी लखनऊ में इस्लाम के दो जानशीन इस्लाम का ही खून बहा रहे थे तो कैफ़ी साहेब की कलम कुछ यूँ चली -

अजाँ में बहते थे आंसू यहाँ लहू तो नहीं ये कोई और जगह होगी ये लखनऊ तो नहीं
यहाँ तो चलती है छुरियाँ ज़बान से पहले यहाँ मीर अनीस आरजू की गुफ्तगू तो नहीं


इस दौरान लगातार हमारी तहजीब का दामन हमारे हाथो से सरकता रहा हमारी आपसी गुफ्तगू तहजीब के दायरे से बाहरनिकल आई, sashduta हमारे बीच घटी , हम ज्यादा से ज्यादा ख़ुद को 'मै' के दायरे में समटते चले गए , इंसानियत का दर्ज़ा हमारी निगाहों में ख़त्म हो गया अमीनाबाद और हजरतगंज में भीड़ बढ़ी पर वो खुलूस और रौनक ख़त्म हो गई जिसकी तलाश में लखनऊ वहां सिमट आता था , तांगे और बग्घियाँ टेम्पो और बस के काले धुंए में खो गए , तमाम शोरो गुल और चकाचौध के बीच भी आज दिवाली में अब वो नूर नही है और ईद की मिठास में एक अजीब सी कडवाहट घुल गई है जिस शामे अवध की धूम दुनिया भर में थी वो अवध की मरी हुई तहजीब पर मातम करती हुई मातम-- अवध में तब्दील हो गई

सबसे ज्यादा अफसोसनाक तो ये है की इसके बाद भी लखनऊ संजीदा नहीं हुआ हमारे मौजूदा हुक्मरानों ने भी लखनऊ को बचाने में कोई खास दिलचस्पी नईं दिखाई वरना क्या आज जिस लखनऊ के नुक्कड़ो गलीयो में आए दिन बड़ी बड़ी राजनैतिक रैलियाँ निकलती रहती है उसके पास इतनी जगह मयस्सर नही है की वो अपना जश्ने लखनऊ ख़ुद लखनऊ के अन्दर समेट सके, इस जश्न में लखनऊ की तहजीब है ही हमारे फनकार और लखनऊ का अहसास ,नवाबो के बेजान पुतले और इमारतो के ढाँचे खड़े कर देने भर से हम इसे जश्ने लखनऊ मान बैठेगे। जिस गोमती के किनारे ये पुरा शहर तामीर हुआ आज वही गोमती का किनारा लखनऊ के जश्न के लिए छोटा पड़ गया गोमती भीशायद इस बदलते लखनऊ को देख में उस लखनऊ को तलाश कर है जो कभी उसके किनारे आबाद हुआ करता था।

अरसे पहले मिस एडेन गार्डेन ने छतर मंजिल और उसकी आस पास की इमारतो को देखकर कहा था '' इसे देखकर जुबैदा बेगम के फरहद बाघ की याद आती है लगता है अलिफ़ लैला में बयान बागे इरम ज़रूर इसी तरह का रहा होगा। '' पर आज हमारी धरोहरे जिस तरह ख़ुद को खड़ा किए हुए है उससे ये नहीं लगता की बहुत दिनों तक लखनऊ का वकार इस पर कायम रह पायेगा .

इस तरह से धीरे धीरे लखनऊ ख़ुद दूर होता जा रहा है लखनऊ से जब हमारे जश्न हमारी तहजीब , हमारे फनकार हमारी धरोहरे दूर हो जायेगी हमसे तो हम कैसे बचा पायेगे अपने इस महबूब शहर को इस मौके पर उमर अंसारी साहेब की ये लाईनेएकदम वाजिब दिखाई पड़ती है ;

माना बहुत हसीं है माना बहत जवां है
यादो की सरज़मीन है ख्वाबो का आसमा है
बस्ती है नवाबो की शहरे सुखन वरां है
सब कुछ है फ़िर भी जैसे हर शय धुंआ धुंआ है
मै जिसको ढूढता हूँ वो लखनऊ कहाँ है
इक्के है अब तांगे डोली बग्घियाँ है
थे पहले आप वाले सब लोग अब कहाँ है
जिनको देखने को आँखे तरस रही है
मै जिसको ढूढता हूँ वो लखनऊ कहाँ है

Tuesday, November 10, 2009

तू जो नहीं तो कुछ भी नहीं है


राहें वहीं है, मंज़र वहीं है
तू जो नहीं तो कुछ भी नहीं है
ये वादियाँ जो खुलकर थी हंसती
ये राहें जो कदमो पर थी बीछ्ती
ये मौसम जो हम पे फ़िदा हो गया था
ये मंज़र ये आलम मेरा हो गया था
तेरे बाद सब ये सताने लगे है
ये मौसम ये मंज़र रूलाने लगे हैं
रास्ते मेरे पाँव मै चुभने लगे हैं
तेरे साथ मुझको ये अपने लगे हैं
चले तुम गए तो ये सब रो रहे हैं
खुशियों के सारे पहर खो रहे हैं
चला तू गया एक अहसास देकर
राहों में मंज़र में बस याद देकर
जाएँ जहाँ भी वो यादें बसी हैं
ये आँखें पुराने वो दिन ढूढती हैं
यहाँ साथ बैठे, हँसे हम कभी थे
ये मंज़र कभी अजनबी तो नही थे
तेरे बाद सब ये सताने लगे हैं
ये मंज़र बहुत अब रूलाने लगे हैं

Monday, November 9, 2009

जब तुम साथ थे


हमने गुज़ारे जो दिन साथ थे
वो ज़िन्दगी के हसीन लम्हात थे
अजनबी रास्तो पर थी मंजिल खड़ी
क्यूकि हर मोड़ पर तुम मेरे साथ थे
तुम थे बेहद हसीं न था तुम सा कोई
तुम तो जानम थे दिलबर थे दिलशाद थे
दूर होकर भी तुमसे नहीं दूर थे
ज़हनो दिल में तेरे ही ख़यालात थे
कब कहाँ और कैसे मिलेंगे तुम्हे
दिल में शामो शहर ये सवालात थे
जुदा हम हुए और फ़िर न मिले
बेवफा हम नही अपने हालत थे
ज़िन्दगी दर्दो गम और आँखे है नम
हम खुश थे ये तेरी ही सौगात थे

लखनऊ मेरे शहर


'' मैं तहेदिल से स्वीकारता हु की मुझे अपनी आँखे बार बार मलकर देखना पड़ता है की कही मैं किसी सपनो के शहर में तो नही हु , ये शहर न रोम है न अथेन्स न कुस्तुन्तुनिया , मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी ऐसा शहर नही देखा , जिसने मुझे इतना प्रभावित किया हो जीतना लखनऊ ने ।''

लन्दन के पर्यटक विलियम रसेल ने जब अरसे पहले ये अल्फाज़ कहे तो लखनऊ की खूबसूरती ने उनके दिलो दिमाग पर जो रंगीनियत बरपा की , उसके मोह मै वो बस इस हसीन शहर को निहारते रह गए थे ।

और यकीन मानिये आज भी लखनऊ की सरज़मी जिस तहजीब से दुनिया को रूबरू करा रही है उसमे शेखो की शेखी भी है तो बाबुओ का सादा जीवन भी है , जाबाजों की जाबाजी भी है तो नवाबो की नवाबियत भी है , घुघरूओं की झंकार भी है तो मजाज़ और नौशाद जैसे फनकार भी है । ये वो शहर है जहाँ आलिया बेगम ने हनुमान मन्दिर बनवाया तो राजा झऊलाल ने इमामबाडा और मस्जिद तामीर करवाई । ज़िन्दगी के जितने रंग लखनऊ की फिजाओं में घुले है , उनका सुरूर हर उस शख्स को खुमारी में डुबो देता है जो इस तहजीब से रूबरू होता है।

आज की बदलती हवाओं में लखनऊ की नायाब धरोहरें , उम्दा ज़बान , लज़ीज़ पकवान और बेमिसाल तहजीब जहाँ किसी को भी रिझाने का मद्दा रखती है तो बदलाव को जिस खूबसूरत अंदाज़ में लखनऊ में अपनी अदाओं में शामिल किया है , वो तरक्की की और बढ़ते जोशीले कदमो की इबारत लिख रहा है ।

हमारा ये महबूब शहर अपने हुस्न के हर नए रंग के साथ चेहरे पर मुस्कान बिखेर देता है फ़िर वो चाहे चौक की पुरानी गलियों में सवरता लखनऊ हो या नई कॉलोनियों में दिनों दिन पनपता लखनऊ, कबाब और सेवई पर मचलता लखनऊ हो या पिज्जा और चोमिन पर झपटता लखनऊ , चाशनी सी घुली उर्दू में बोलता लखनऊ हो या हिंगलिश को अपनी ज़बान में घोलता लखनऊ, मस्जिदों और मंदिरों में दुआ पढता लखनऊ हो या नए संगीत की धुनों पर थिरकता लखनऊ , अमीनाबाद और हजरतगंज में महकता लखनऊ हो या माल की नई रौशनी में दमकता लखनऊ , सियासत की गलियों में पेचीदा दाव खेलता लखनऊ हो या छत पर पतंग उडाता बेपरवाह लखनऊ , इतिहास के झरोखे से झांकता लखनऊ हो या मंजिल की दूरियों को लांघता नया लखनऊ।

तमाम बदलावों और ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद के बीच अपने दायरों को बढाता , फ्लाई ओवरों से भीढ़ तो ख़ुद में समेटता , मेट्रो के सपने संजोता , बग्घियों, ताँगों, बागों और तहजीब का ये शहर अपनी बेनजीर अदाओं से दुनिया को आज भी रीझा रहा है इसलिए लखनऊ को देखने वाला वाला हर शख्स मुस्कुरा रहा है।